आलोचना करना कितना सही या गलत





मुझे पक्का पता नहीं पर शायद आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने एक बार कहा था कि कोई भी आलोचक बनने की आकांक्षा नही रखता| कहने का मतलब है कि जिस तरह लोग डॉक्टर या इंजिनिअर बनने की इच्छा रखते उस तरह कोई भी व्यक्ति बड़ा होकर महान आलोचक बनने की इच्छा नही रखता, फिर भी बड़े बड़े आलोचक हुए,यहाँ तक की हम और आप भी रोज किसी न किसी की आलोचना करते ही है, अपवाद स्वरुप हो सकता है कि कोई व्यक्ति इस तरह की आकांक्षा पालकर आलोचक बना हो पर ज्यादातर लोग परिस्थितिवश आलोचक बन जाते| किन्तु ऐसी परिस्थितियाँ क्यों उत्पन्न होती है यह जानना मुझे काफी रुचिकर लगा| दुनिया का हर व्यक्ति अपने अर्जित अनुभवों,पारिवारिक और सांस्कृतिक  संस्कारों द्वारा पोषित पूर्वाग्रहों और कुछ अंश तक अपने शैक्षिक ज्ञान की प्रतिमूर्ति होता है| इसी के आधार पर उसका अहं और स्वाभिमान निर्मित होता है| मानव स्वभाव यह है कि हम अपने विचारों से बहुत प्रेम करते है, उन्हें बदलना नही चाहते, चाहे वह गलत ही क्यों न हो, और यदि उन्हें किसी की सराहना मिल जाए तो कहना ही क्या, और उनकी निंदा की जाए इस बात से हम बहुत डरते है, और तो और सबसे ज्यादा ख़ुशी हमें तब मिलती है जब हम अपने दृष्टिकोण और विचारों से दुसरे के विचारों को हरा देते है – और यही आलोचनात्मक प्रवृत्ति का मूल है| जब भी कोई विचार या कोई किया गया कार्य हमारे मन में पले बढ़े विचारों से टकराता है तो स्वाभाविक रूप से हम उसकी आलोचना करने बैठ जाते है|
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         अब क्यों कि हम खुद को एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परिवेश की उपज मानते है तो ऐसा लगता है कि आलोचना करना हमारा मूलाधिकार है| हाँ, राजनितिक परिप्रेक्ष्य में मै इससे बिलकुल सहमत हूँ और इसका हिमायती भी पर जहां तक मेरा विचार है हमें अपने व्यवहारिक जीवन में आलोचना करने से बचना चाहिए| अगर आपको ये लगता है कि आपकी तीखी आलोचना से कोई सुधर जायेगा तो आप ग़लतफ़हमी में है अलबत्ता सम्बन्ध जरूर बिगड़ जायेंगे| अगर आप किसी को सुधारना ही चाहते है तो कभी भी उसे इस बात का पता न चलने दीजिये| यह जानना लाभप्रद होगा की आलोचना एक बूमरैंग की तरह होती है जो लौटकर हमारे पास ही आ जाती है | चीनी दार्शनिक कन्फ़ुसिअस  ने कहा है की अगर विशुद्ध स्वार्थी ढंग से सोचे तो दूसरो को सुधारने के बजाय हमें खुद को सुधारना बेहतर होगा| कोई भी अपनी आलोचना नही पसंद करता है भले ही वह कितनी सही, तार्किक और यथार्थ हो| अगर किसी की आलोचना करनी ही है तो उसके विचारों को कभी एक सिरे से नकारना नहीं चाहिए बल्कि उसकी विचारों को तवज्जों देते हुए अपनी बात रखनी चाहिए| कुछ लोग बहुत अपने विचारों के प्रति बहुत संवेदनशील होते है, उन्हें अपनी आलोचना बहुत नागवार गुजरती है| यह जानकार आप आश्चर्य कर सकते है कि महान उपन्यासकार थॉमस हार्डी ने कटु  आलोचना के कारण ही उपन्यास लिखना छोड़ दिया और पोएट थॉमस चैटआर्तन ने आत्महत्या कर ली|
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         इस मामले में थोडा धैर्य बरतने की जरूरत होती है, अगर किसी की बात आपके दृष्टीकोण से टकराती है और आपको अच्छी नहीं लगती है तो आप तथ्य को अपने दृष्टिकोण से परे उसके दृष्टिकोण से देखने की कोशिश कीजिये,शायद वह सही कह रहा हो –हम में से बहुत से ऐसा नही कर पाते है जिस से आपस में संघर्ष पैदा होता है-और अगर वह गलत ही हो तो उसकी लाज रखते हुए ही आप अपना नजरिया पेश करें| लिंकन ने सही कहा है- आप किसी की आलोचना न करे ताकि आपकी भी आलोचना न हो|
                                                                                
                                                                                             -    रवि प्रकाश

नोट - यह लेख पांच साल पहले लिखा था | आज ब्लॉग पर शेयर किया 
फोटो क्रेडिट - गूगल 
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