Kashi Ka Assi by Kashinath Singh

मोहल्ला अस्सी" ( फ़िल्म) जो कि काशीनाथ सिंह के उपन्यास "काशी का अस्सी" के आधार पर बनी थी, सेंसर बोर्ड द्वारा नही रिलीज़ होने दिया गया। लोगो ने फिर भी फ़िल्म को देखा और सराहा । फ़िल्म देखकर पहली बार मुझे यह एहसास हुआ कि सनी देओल के पास "ढाई किलो का हाथ" और "मजदूर का हाथ" के अलावा एक्टिंग की गजब प्रतिभा है। सनी देओल का एकदम अलहदा रोल था और बखूबी निभाया था इसे।
फ़िल्म को शायद सिर्फ इसलिए रिलीज़ नही होने दिया गया क्योंकि उपन्यास में वर्णित अस्सी और नब्बे के दशक की राजनीतिक जुमलेबाजी और चाय की दुकानों पर की गई गप्प को पार्टी और पार्टी नेता सहित जस का तस दिख दिया गया था इसके अलावा एक और बड़ा कारण उपन्यास से ही ली गयी गालियाँ जो कि अगर विश्लेषण किया जाय तो देश की एक सांस्कृतिक इकाई के रूप में उभर कर सामने आएंगी, उनका फ़िल्म में जस का तस समावेश। 
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खैर, उपन्यास पर अगर गौर करे तो इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसकी भाषा है । उपन्यास का उद्देश्य , प्लाट या कॉन्सेप्ट मुझे भले पचास परसेन्ट से कुछ ज्यादा समझ मे आया हो , पर उपन्यास की भाषा को हंड्रेड परसेंट इंजॉय किया । उपन्यास का कोई भी पात्र अगर विरोधी है किसी विचार या पार्टी तो वो कतई मृदुभाषी नही है। विरोध हमेशा खरी खोटी सुनाकर, ताना या व्यंग्य मारकर ही किया गया है। किसी मुद्दे को अगर समझाया गया है तो वो भी लठ्मारी अंदाज़ में, एक बानगी राजनीति पर - " राजनीति बेरोजगारों के लिए रोजगार कार्यालय है, एम्प्लॉयमेंट ब्यूरो। सब आई.ए. एस., पी. सी.एस. हो नही सकता । ठेकेदारी के लिए भी धनबल-जनबल चाहिए, छोटी मोटी नौकरी से गुजारा नही। खेती में कुछ रह नही गया। नौजवान बिचारा , पढ़ लिख कर डिग्री लेकर कहाँ जाए? और चाहता है लंबा हाथ मारना । सुनार की तरह खुट खुट करने वालो का हश्र देख चुका है, तो बच गई राजनीति। वह सत्ता की भी हो सकती है, विपक्ष की भी या उग्रवाद की भी।समझिये कि दादागिरी यहाँ भी है, उठा पटक है, चापलूसी है, हड़बोंगई है, तरबली है, संघर्ष है, लेकिन ये कहाँ नही है। पाना और खोना किस धंधे में नही है?"
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कुल पांच चैप्टर के इस उपन्यास (170 पेज ) को एक ही झटके में पढ़ा जा सकता है, लेकिन यह मजा ले लेकर पढ़ा जाने वाला उपन्यास है तीन चार दिन तक। हँसाने के अलावा बहुत कुछ बताता भी है उपन्यास कि किस तरह जब घर घर मे टीवी और सैटेलाइट चैनलों का बोलबाला हो गया तो लोग घर से बहुत कम निकलने लगे, उनका हंसी-मजाक, ठिठोली, गप्पे मारना, धीरे धीरे कम हो गया और लेखक के अनुसार लोग जीना और हँसना भूल गए, हँसने का काम अब सिर्फ टीवी पर दिखाई देने वाले एक्टर्स का रह गया । मोहल्ला अस्सी अब 'तुलसी नगर' बन गया था जहाँ जिंदगी भाग रही थी, " कारें, बसें, टेम्पो, स्कूटर, साइकल, लोगो की टाँगे- सब जल्दी में।" इस बदलाव को सबसे ज्यादा नही बर्दाश्त कर पा रहे थे वो लोग जिनके हँसी और ठहाकों से कभी अस्सी का चौराहा खिलखिलाता लगता था, अब उन्हें एकदम से "चिल्ल-पों" लगता था, वैसे ही पूरा काशी भी।
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ग्लोबलाइजेशन, लिबरलाइजेसन, मल्टीनेसनालाइजेसन, और तमाम "आइजेसन" पर भी करारा व्यंग्य है। एक बहुत ही माइंड ब्लोइंग डायलॉग है, " तय कर लो कि क्या होना चाहते हो?
इंजीनियर? डॉक्टर? ये तो बीते दिनों की बातें हैं। कलेक्टर? ठीक, लेकिन रिजर्वेशन ने सारी दिलचस्पी खत्म कर दी है। चाहो तो एक दो चांस देख सकते हो, लेकिन मल्टीनेशनल? इसकी तो बात ही कुछ और है। आज हांगकांग, परसो न्यूयॉर्क, नरसो पेरिस। इसमे और उसमें वही फरक है जो डॉलर और रुपये में है। मगर बेटा। यह गुल्ली-डंडा नहीं, जलेबी दौड़ है- तुम्हारे साथ दौड़ने वाले हजारों लाखों में नहीँ, करोड़ो में है ।इसीलिए दौड़ो,जान लड़ा दो। कुछ करके दिखाओ। शब्बाश!!
और 'होमवर्क' के बोझ के नीचे चाँप दो इतना कि कें कें करने का मौका न मिले।"
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बहरहाल, किताब वयस्को के लिए है, बच्चों और बुढ्ढों के लिए नही है, ज्यादा संभावना है कि महिलाएं भी इसे पसंद न करे। तो अगर पढ़ा नही अब तक वयस्कों ने तो ...यार मजेदार चीज़ है, टेक अ चांस फ़ॉर दिस।

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