घर अकेला हो गया- मुनव्वर राना

शायरी से मेरी मोहब्बत मेरी समझदारी की इब्तिदा से है। मुझे आज भी याद है, उन दिनों हमारे घर मे एक टेप रिकॉर्डर हुआ करता था, पिताजी को मुशायरा सुनने का बड़ा शौक था, आज भी है, तो तभी बहुत से नामचीन शायरों को मैंने सुना। मजीद देवबन्दी, अंजुम रहबर, तरन्नुम कानपुरी, उजबक चारखारवी, मंजर भोपाली, मुनव्वर राना और पता नही कितने और शायरों की शायरी मेरे जेहन में आज भी जिंदा है। बाद में फराज अहमद फराज के बारे में और उनकी शायरी के बारे में पढ़ा, मैं तो उनका फैन हो गया। राहत इन्दौरी को खूब सुना
खैर, आते है अब मुनव्वर राना की किताब, “घर अकेला हो गया” पर- किताब के कवर के पिछले हिस्से का पहला जुमला यह है कि- मुनव्वर राना एक दुखी आत्मा का नाम है। ये तो किताब के उन्वान से ही जाहिर है-

“ ऐसा लगता है कि जैसे खत्म मेला हो गया।
उड़ गई आंगन से चिड़िया, घर अकेला हो गया।“
अगर किसी ने भी मुनव्वर राना को सुना है, पढ़ा है तो उसे यह जरूर एहसास होगा कि मुनव्वर राना बहुत पेचीदा और उलझे मज़मू को सीधे औऱ सधे लफ़्ज़ों के पैरहन देने में उस्ताद है। वतन की मिट्टी से किसी बच्चे का सा लगाव, मजहब के वाजिब-ओ-असल मकसद के जानिब उनका झुकाव, कुनबे-पड़ोस-मोहल्ले में लोगो का मेल-जोल देखते हुए बड़े होना, फिर शहर में इंसान का इंसान से अलगाव, और तमाम बातें जैसे - उठते जमाने मे अख़लाक़ की गिरावट, सियासती लोगों में दोगलेपन की सजावट, बढ़ता बाजार, बढ़ती तिश्नगी और खोखली मुस्कुराहट से ताजिन्दगी एक जद्दोजहद से गुजरती हुई उनकी शायरी लगती है।
“किसी का कद बढ़ा देना, किसी के कद को कम कहना।
हमे आता नही ना-मोहतरम को मोहतरम कहना।
चलो चलते हैं, मिल जुल कर वतन पे जान देते है।
बहुत आसान है कमरे में वंदेमातरम कहना”।
एक दूसरा मौजू जो उनकी शायरी में ज्यादा देखने को मिलता है, वो माँ के लिए उनकी मोहब्बत, उनकी शायरी मे “माँ” लफ्ज, और माँ से जुड़े एहसास बहुतायत में देखने को मिलते है। एक बार उन्होंने खुद ही कहा था- जैसे मायने के मुताबिक तो ग़ज़ल, “ महबूब से बातें करना है” और अगर ये सच है तो महबूब माँ क्यो नही सकती, जब महबूब तो लोगो ने खुदा को भी बना डाला है। तब भी उन पर माँ के बारे में लिखने की वजह से इमोशनल ब्लैकमेलिंग के इल्जाम लगते रहे- उनकी सफाई इतनी थी कि “अगर मेरे शेर इमोशनल ब्लैकमेलिंग है तो श्रवण कुमार की फरमा-बरदारी को भी ये नाम क्यों नही दिया गया। मैं पूरी ईमानदारी से इस बात का तहरीरी इकरार करता हूँ कि मैं दुनिया के सबसे मुकद्दस और अजीम रिश्ते का प्रचार केवल इसलिए करता हूँ कि मेरे शेर पढ़कर कोई बेटा माँ की खिदमत करने लगे या रिश्ते का एहतराम करने लगे, तो मेरे कुछ गुनाहों का बोझ हल्का हो जाएगा”
“ किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आयी
मैं सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी”
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"दावर-ए-हश्र तुझे मेरी इबादत की कसम।
ये मेरा नाम-ए-आमाल इज़ाफ़ी होगा
नेकियां गिनाने की नौबत ही नही आएगी
मैंने जो माँ पर लिखा है वही काफी होगा”
किताब वाकई बहुत अच्छी है, कई सालों के बाद कोई शायरी की किताब हाथ लगी, ऐसा लगा कि शुरू किया नही और खत्म हो गयी।

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