मुझे मुक्ति दो

मुझे मुक्ति दो" तसलीमा नसरीन (25 अगस्त, 1962) द्वारा रचित 56 कविताओ का संग्रह है। मूलतः ये बंगाली मे ही लिखी गयी थी,मुनमुन सरकार ने इसका हिन्दी मे अनुवाद किया है। लगभग साल भर पहले मैने ये संग्रह पढ़ा था। इनमे कुछ कविताएँ मुझे असाधारण और हट के लगी। मैने 3 कविताओँ को अपने रफ मे नोट कर लिया था उन्हेँ मै आज फेसबुक पर पोस्ट कर रहा हूँ। 
.........1.विच्छेदन...........
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उन्होँने पहले मेरी जाँघे काटी,गोश्त के अलावा नही मिला कुछ
नसेँ काटी,हाथो की,पैरोँ की-सिर्फ फुहार मार के निकला खून।
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खीँच कर निकाली आँख की पुतलियाँ,फुसफुस,पाक स्थली
उलट-पुलट के देखा यकृत को,पित्त की थैली को
झपट के उठाया जरायू को,नही कुछ नही मिला।
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कुछ नही था दिमाग मे,रीढ़ मे,पीठ मे,पेट मे
दो वृक्क पड़े थे उदास दो तरफ
उन्हेँ खोलकर देखा तो वो भी खाली थे
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लेकिन....
दिल पर....
हाँ,दिल पर.....
दिल पर हाथ पड़ते ही उन्हेँ महसूस हुआ....
कि वाकई इसमे है कुछ
उन्होँने फाड़ा उसे अपने दाँतो से,नाखूनो से...
उसके अन्दर उन्हेँ मिला एक देश-बंग्लादेश।
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............2. मैथुन..............
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मन ही मन खुद बनती हूँ खुद की प्रेमी
उतारती कपड़े,चूमती हूँ नाभि,अपने स्तन।
जब जाग उठती है देह आधी रात को,
तड़के खुद ही करती हूँ मैथुन।
सुदूर मरुभूमि मे तैरकर एक बूँद जल मे
शान्त करती हूँ नदी की पिपासा।
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..... 3.नारी का अन्तर्दाह नारी ही समझती है ज्यादा.....
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पुरुषोँ ने खूब किया है काव्य विलास
कम नही आँके स्तन,योनि,नितंब
गढ़े भी खूब।
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नारी को दलित बनाकर अनर्गल देते रहे है विचित्र बयान
कौन कहता है पुरुषो मे होती है नारी मन की भाषा को समझने की शक्ति?
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कौन कहता है उनमे होती है नारी के अन्तर्दाह को समझने की क्षमता?
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नारी ही जानती है देखना पलकोँ की तरह खोलते हुए घाव
नारी को ही झुकाने होंगे होँठ चुंबनो के लिये स्तन मे।
नारी को ही खोलना पड़ेगा योनिफूल नारी की सजल उँगलियोँ से।
नारी के अलावा किसमे है क्षमता जो नारी से करे संपूर्ण प्यार।
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यह मैँ हूँ ,एक नारी,नारी के लिए उन्मुक्त कर रही हूँ
अपना अन्तर-बाहर।
-तसलीमा नसरीन
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