टूटते बिखरते लोग

कुछ किताबें गुमनाम ही रह जाती है, गुडरीड्स पर भी नही मिलती, यहाँ तक कि आईएसबीएन नम्बर डालने पर भी। इस किताब का तो आईएसबीएन नम्बर भी नही है। अचानक हाथ लग जाने वाली किताबो को तुरंत पढ़ लेना चाहिए, इस किताब की मोटाई ने तो इस काम को और आसान बना दिया, एक झटके में खत्म हो गयी।
उपन्यास लेखक के निजी अनुभवों का ताना बाना है, सत्तर के दशक में जब वह अमेरिका में एक विज्ञापन कंपनी में प्रशिक्षु था। ट्रेनिंग पीरियड के बाद उसे परमानेंट जॉब मिलने वाली थी, लेकिन उसके साथ कुछ ऐसा घटित होता है कि जॉब का लालच छोड़कर अपने देश लौट आता है। उपन्यास में लेखक ने अमेरिका की पूंजीवादी अर्थव्यस्था के निष्छल मित्र माने जाने वाली विज्ञापन कंपनियों के दर्शन पर बहुत रोचक ढंग से प्रकाश डाला है, यथा ‘डर’ और फ्रॉयड का दर्शन। पूंजीवाद बिना विज्ञापन के अपंग है। विज्ञापन कंपनी के एमडी के स्पीच का एक अंश, “यह दुनिया एक मंडी है,जहां उपयोगी वस्तुओं और लाभदायक व्यक्तियों की हमेशा से आवश्यकता रही है..........आजकल की दुनिया न तो मजदूरों की दुनिया है ना ही मालिकों की, यह दुनिया तो केवल खरीदारों की मंडी है.... आज जब एक गर्भवती महिला बालक को जन्म देती है,तो वह केवल एक बच्चा नही होता, असल मे व्यापार की मंडी में वह एक नया खरीदार पैदा करती है। हमारा फर्ज है कि हम उन नन्हे खरीदारों के दिमाग मे विज्ञापनों के माध्यम से कुछ निशान छोड़ जाएं जिन्हें वह अपने यौवन काल मे उपयोग में लाकर अपनी स्थिति बेहतर बना सके। दोस्तों, आपको यह नही भूलना चाहिए कि आज का बच्चा कल का खरीदार होता है।” तत्कालीन परिस्थितियों में अमेरिका में बहुत से पूंजीवादी समर्थक( जैसा कि उपन्यास में एक किरदार प्रोफेसर डॉक्टर माइकल का है) इस व्यवस्था में “कंज्यूमर” को “किंग” मान रहे थे,जब कि दूसरी ओर विज्ञापन कंपनी का एग्जीक्यूटिव बोलता है, “ कंज्यूमर माई फुट! उपभोक्ता! कोरी बकवास! एडवरटाइजिंग के बिना अमेरिकी उद्योग साबुन के झाग का बुलबुला है।”


इसके अलावा उपन्यास अमेरिका में काम कर रहे भारतीय नागरिकों और अन्य देशों के नागरिकों के एकाकी जीवन का भी चित्रण करता है। संयोग से लेखक को एक स्वीडिश लड़की मिल जाती है, प्यार हो जाता है, और उसके बाद शादी का प्लान होता है, पर जिस बिल्डिंग में वह रहती है उसी में एक अमेरिकी एक्स मिलिट्री मैन काम करता जो उसे रोज फूलों का गुलदस्ता देता और मन ही मन चाहता भी है, विदेशियों के प्रति उसके मन मे बहुत घृणा रहती है जो वियतनाम की लड़ाई के दौरान उसके ज़ेहन में घर कर गयी। एक दिन जब लड़की उसे मजाक ही मजाक में बताती है कि वह अगले हफ्ते एक भारतीय से शादी करने जा रही है, अब उसे उसको गुलदस्ते देने का कोई फायदा नही। वह व्यक्ति उसी रात उसके उसके कमरे में घुसकर उसका गला घोंट देता है। कोर्ट में वह कुबूल करता है कि उस लड़की से ज्यादा उसे उस इंडियन से नफरत थी। ऐसा भी नही अमेरिकन्स को इसी तरह पेश किया गया है, एकाध अच्छे भी लोग है।

हिंदी में पहली बार इस तरह का उपन्यास पढ़ा। यह बिल्कुल बिना एक्शन वाली हॉलीवुड मूवी की तरह है, छोटा पर विचारोत्तेजक जिसका सूत्रधार एक भारतीय है। अच्छा लगा।

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